लोगों की आस्था का प्रतीक है नैहंगल वीर मंदिर, जानिए कैसे और क्याें पड़ा ये नाम

Edited By Vijay, Updated: 19 Jun, 2021 07:39 PM

naihangal veer temple in badukhar

विधानसभा क्षेत्र इंदौरा के सीमांत में ब्यास नदी के किनारे बडूखर कस्बे से 4 किलोमीटर की दूरी पर बडूखर-हटली-रैहन संपर्क मार्ग पर घने जंगलों के बीच पहाड़ी की चोटी पर स्थित नैहंगल वीर मंदिर लोगों की आस्था का प्रतीक है। इस मंदिर के साथ बीसियों किवंदतियां...

बडूखर (सुनीत): विधानसभा क्षेत्र इंदौरा के सीमांत में ब्यास नदी के किनारे बडूखर कस्बे से 4 किलोमीटर की दूरी पर बडूखर-हटली-रैहन संपर्क मार्ग पर घने जंगलों के बीच पहाड़ी की चोटी पर स्थित नैहंगल वीर मंदिर लोगों की आस्था का प्रतीक है। इस मंदिर के साथ बीसियों किवंदतियां व घटनाएं जुड़ी हुई हैं। इनमें से एक ऐसा वाकया बताया जाता है कि इस जगह पर रखी पिंडियों को लगभग 270 वर्ष पूर्व यहां के ग्वालों व स्थानीय हटली के लोगों के सहयोग से स्थापित किया गया था। इस मंदिर को ग्वाल बाल के नाम से भी जाना जाता है। स्थानीय व क्षेत्र के लोगों के घर पर जब भी कोई पशु प्रसूति होती है तो सबसे पहले दूध व चूरमा का भोग इस मंदिर में लगाया जाता है। उसके बाद ही घर पर दूध का प्रयोग किया जाता है।
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पशुओं की रक्षा करने पर नैहंगल नाम के बालक ने दी थी बलि 

कहा जाता है कि एक बार स्थानीय ग्वाले अपने-अपने पशु चराने के लिए इस स्थान पर आए हुए थे। पास में ही गन्नों का एक खेत हुआ करता था जहां जाने की जिद में सभी ग्वाले एक पत्थर को ईष्ट मानकर उसे पशुओं की रक्षा व खेल-खेल में यह कहकर चले गए कि अगर उनके लौटने तक कोई भी पशु गुम नहीं हुआ तो वे अपने में से किसी एक युवा की बलि इस जगह पर देंगे। जब काफी देर बाद वे गन्नों के साथ उस जगह पहुंचे तो उन्होंने पाया कि सभी पशु वहीं पर सुरक्षित मौजूद थे। उन्होंने वहीं गन्ने चूसे व बलि के बारे में भी आपस में विचार-विमर्श किया लेकिन कोई भी उनमें से बलि के लिए तैयार नहीं हुआ। तब नैहंगल नाम का बालक अपनी बलि देने के लिए तैयार हो गया। दूसरे साथी ने ईष्ट के रूप में माने पत्थर का आशीर्वाद लेकर जैसे ही गन्ने की पोरी से उसकी गर्दन को रेता तो उस नैहंगल नामक बालक की गर्दन कट कर उस पत्थर रूपी देवता के आगे गिरी। डर के मारे जब वे पशु लेकर वहां से भागने लगे तो पीछे से आवाज आई कि इसकी गर्दन को जोड़कर रख जाओ। ऐसा करके वे वहां से भाग गए।
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बालक को देख खुशी व आश्चर्य से भाव-विभोर हो गए लोग

देर शाम तक जब नैहंगल घर नहीं पहुंचा तो उसके परिवार वालों ने बाकी ग्वालों के घर जाकर पूछा कि उनका बेटा नैहंगल कहां है तो डर के मारे उन्होंने कहा कि वह पीछे आता ही होगा। उनमें से कुछ ग्वालों ने जब अपने घर पर सारी आपबीती सुनाई तो उनके माता-पिता अन्य लोगों को साथ लेकर नैहंगल की खोज में उस स्थान के लिए निकल गए लेकिन थोड़ी दूर जाकर उन्होंने देखा कि यह बालक अपने पशुओं के साथ घर की ओर आ रहा था। जैसे ही उन्होंने इस बालक को देखा वे खुशी व आश्चर्य से भाव-विभोर हो गए। इस बात से सभी हतप्रभ भी हुए और सभी गांववासी अगले दिन उस स्थान पर यह जानने के लिए पहुंचे कि वास्तव में यह सत्य भी है या सभी दोस्त कोई कहानी ही उन्हें सुना रहे हैं। इसलिए जब सभी लोग इस जगह पर पहुंचे तो पाया कि वहां पर गन्ने की पोरी व चूसे हुए गन्नों के फाक इधर-उधर बिखरे पड़े थे। वहीं पास में ही ईष्ट के रूप में स्थापित वह पत्थर भी रखा हुआ था जिसे सभी ने नतमस्तक होकर ग्वाल बाल देवता के रूप में वहां स्थापित कर दिया और इसका नाम नैहंगल वीर रख दिया। इस मंदिर को ग्वाल बाल के भगवान श्रीकृष्ण के रूप में भी पूजा जाता है।

अप्रैल महीने के पहले वीरवार को होता है भंडारा

कालांतर में इस जगह को पीर के नाम से भी जाना जाने लगा। सन् 1991 में बडूखर के प्रसिद्ध समाज सेवक सतीश कुमार शर्मा ने इस जगह पर भंडारे का आयोजन शुरू किया जोकि अप्रैल महीने के पहले वीरवार को आयोजित किया जाता है और कोविड काल को छोड़कर अब तक अनवरत जारी है। हर साल अश्विन मास के 5 प्रविष्टे को दियोठी नामक गांव में नैहंगल के नाम से दंगल का भी आयोजन किया जाता है और जीतने वाले को वीर के नाम की उपाधि दी जाती है।

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