यहां 2 श्मशानघाटों के बीच है देवता का मंदिर, पांडवों के अज्ञातवास से जुड़ी है ये मान्यता

Edited By Vijay, Updated: 03 Dec, 2019 05:57 PM

layad temple in karsog

देवभूमि हिमाचल में कई ऐसे देवस्थल हैं, जिनके इतिहास को लेकर आमजन को विश्वास कर पाना मुश्किल हो जाता है। आज हम ऐसे ही एक महाभारतकालीन देवता देव दवाहली के 2 श्मशानघाट के मध्य स्थित मूल स्थान ल्याड़ मंदिर का रहस्य बताने जा रहे हैं।

करसोग/सुंदरनगर (नितेश सैनी): देवभूमि हिमाचल में कई ऐसे देवस्थल हैं, जिनके इतिहास को लेकर आमजन को विश्वास कर पाना मुश्किल हो जाता है। आज हम ऐसे ही एक महाभारतकालीन देवता देव दवाहली के 2 श्मशानघाट के मध्य स्थित मूल स्थान ल्याड़ मंदिर का रहस्य बताने जा रहे हैं। देव दवाहली मंडी जिला के उपमंडल करसोग की नगर पंचायत के गांव ल्याड़ में ल्याडेश्वर महादेव के नाम से विराजमान हैं। हैरानी की बात यह है कि इस मंदिर का निर्माण 2 श्मशानघाटों के बीचोंबीच किया गया है। इन श्मशानघाट में किसी शव का अंतिम संस्कार करने से पहले मंदिर के प्रांगण में बनी जगह पर लाना अनिवार्य है। इसके उपरांत ही शव का अंतिम संस्कार किया जाता है।
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भीम ने दैत्य बकासुर का किया था संहार

मान्यतानुसार करसोग को महाभारत के समय पनचक्र (एकचक्रा नगरी) के नाम से जाना जाता था। अपने अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने करसोग पहुंचने पर दैत्य बकासुर के उत्पात से आमजन को दुखी पाया। स्थानीय लोगों को इस दुख से निजात दिलवाने के लिए भीम ने 3 दिन तक चले युद्घ में बकासुर का संहार कर लोगों को राहत प्रदान की। वहीं दैत्य बकासुर भगवान शिव का परम भक्त होने के कारण उन्हें शिव द्वारा जनकल्याण के लिए देवत्व प्रदान किया गया। इसके उपरांत देव दवाहली ने जनकल्याण के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कई स्थानों पर अपना स्थान बनाया।
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ल्याड़ मंदिर में मौजूद हैं 5 शिवलिंग

ल्याड़ मंदिर के आंगन में बकासुर की छाती पाषाण रूप में आजदिन तक मौजूद है। ल्याड़ मंदिर में 5 शिवलिंग भी मौजूद हैं, जिस कारण इसे पंचमुखी महादेव के नाम से भी जाना जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार इस प्राचीन मंदिर में महाभारत के संपूर्ण युद्घ का चित्रण आज भी पत्थरों पर मूर्तियों के रूप में मौजूद है। मंदिर में भीम और बकासुर  के बीच हुए घमासान युद्घ को लेकर कालचक्र और 3 दिन तक चले इस युद्घ पर भीम द्वारा खुद पत्थर की एक शिला पर तीन रेखाएं उकेरना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद हैं।
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काली शक्तियों के प्रभाव से मिलता है छुटकारा

इस रहस्यमयी मंदिर में भूत-प्रेत, पिशाच आदि काली शक्तियों का विधि-विधान से ईलाज कर पूर्ण रूप से हमेशा के लिए छुटकारा किया जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार  इस मंदिर में बाबा गोरखनाथ भी अपने शिष्यों के साथ भ्रमण करने आए थे। मंदिर में प्रत्येक माह संक्रांति को देवता को जागृत कर लोगों की समस्याओं का हल किया जाता है और इस दिन प्रदेश के विभिन्न स्थानों से लोग आकर देव दवाहली का आर्शीवाद प्राप्त करते हैं।
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वर्ष में एक बार मनाया जाता है देव दवाहली का पर्व बूढ़ी दिवाली

देव दवाहली का पर्व वर्ष में मात्र एक बार बड़ी धूमधाम से ममलेश्वर महादेव के सान्निध्य में बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व दिपावली से एक माह के बाद आने वाली अमावस्या को शिव मंदिर ममेल में हजारों भक्तों संग मनाया जाता है। इस रात देव दवाहली अपने 9 भाइयों संग अपनी उपस्थिति दर्ज कर देव खेल के माध्यम से भक्तों की समस्याओं का निवारण करते हैं। बूढ़ी दिवाली पर देव दवाहली अपने अन्य स्थानों की भांति मुख्य स्थान ल्याड मंदिर से भी ढोल-नगाड़ों और मशालों सहित सैंकड़ों देवलुओं संग ममलेश्वर महादेव मंदिर ममेल पहुंचते हैं। जहां वह 2 दिन तक निवास करते हैं।

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