दशहरा उत्सव के लिए कुल्लू पहुंचे देवी-देवता, भगवान रघुनाथ के मंदिर में भरी हाजिरी (Video)

Edited By Vijay, Updated: 07 Oct, 2019 05:06 PM

मंगलवार यानि 8 अक्तूबर से शुरू होने वाले अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा के लिए घाटी के देवी-देवताओं ने भी कूच किया है। इस महाकुंभ में सभी देवी-देवता अपनी हाजिरी भरेंगें। वहीं राज परिवार की कुलदेवी माता हिडिम्बा भी मनाली से अपने लाव-लश्कर के साथ...

कुल्लू (दिलीप): मंगलवार यानि 8 अक्तूबर से शुरू होने वाले अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा के लिए घाटी के देवी-देवताओं ने भी कूच किया है। इस महाकुंभ में सभी देवी-देवता अपनी हाजिरी भरेंगें। वहीं राज परिवार की कुलदेवी माता हिडिम्बा भी मनाली से अपने लाव-लश्कर के साथ अन्तर्राष्ट्रीय दशहरा के लिए निकल पड़ी हैं। उनके आगमन से अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव का आगाज होता है। दशहरा उत्सव में भाग लेने के लिए सैंकड़ों देवी-देवता कुल्लू पहुंच गए हैं। कुल्लू पुलिस और प्रशासन की ओर से सुरक्षा के पुख्ता प्रंबंध किए गए हैं। भगवान रघुनाथ जी के मुख्य छड़ीबरदार महेश्वर सिहं ने रामशिला हनुमान मंदिर से माता हिडिम्बा का स्वागत करेंगे। इसके साथ ही देव महाकुंभ का आगाज होगा। दशहरा उत्सव में पहुंचे रहे देवी-देवता भगवान रघुनाथ के मंदिर में हाजिरी लगा रहे हैं। बता दें कि भगवान रघुनाथ की विधिवत पूर्जा-अर्चना, हार, श्रृंगार, अस्त्र-शस्त्र पूजा के बाद मंगलवार देर शाम को भव्य शोभायात्रा का आगाज होगा।
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दशहरा मनाने के पीछे रोचक है कहानी

दशहरे के आयोजन के पीछे भी एक रोचक घटना का वर्णन मिलता है। इसका आयोजन कुल्लू के राजा जगत सिंह के शासनकाल में आरंभ हुआ। राजा जगत सिंह ने वर्ष 1637 से 1662 तक शासन किया। उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी। इसके बाद राजा जगत सिंह ने सुल्तानपुर में राजधानी स्थापित की। राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था। एक दिन राजा जगत सिंह धार्मिक स्नान के लिए मणिकर्ण तीर्थ स्थान पर जा रहे थे तो किसी ब्राह्मण ने राजा को यह झूठी सूचना दी कि दुर्गादत्त के पास एक पाथा (डेढ़ किलो) सुच्चे मोती हैं, जो आपके राज महल से चुराए हैं। उसके बाद जब राजा मणिकर्ण से लौटे तो उन्होंने बिना सोचे-समझे तुरंत आदेश दिया कि दुर्गादत्त ने मोती नहीं लौटाए तो उसे परिवार सहित समाप्त किया जाए।
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मौत का ऐलान सुनते ही दुर्गादत्त दे दी थी परिवार सहित अपनी आहुति

ब्राह्मण को मौत के घाट उतारने का ऐलान सुनते ही दुर्गादत्त ने ठान लिया कि वह राजा के सैनिकों के पहुंचने से पहले ही परिवार सहित जीवनलीला समाप्त कर लेगा और दुर्गादत्त ने परिवार को घर में बंद कर आग लगा दी। वहीं खुद घर के बाहर खड़ा होकर अपना मास काटकर आग में फेंकता रहा और कहता रहा, ‘ले राजा तेरे मोती’। इस दौरान राजा जगत सिंह पास से ही गुजर रहे थे। सारा मामला देखकर उन्हें पश्चाताप हुआ। बाद में ब्राह्मण की मौत के दोष के चलते राजा को कुष्ठ रोग हो गया। कुष्ठ रोग रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाकर कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाट भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें इस दोष से मुक्ति मिल जाएगी। राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा।
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मूर्ति लाने पर राजा को मिली रोग से मुक्ति

दामोदर दास वर्ष 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर गांव मकड़ाह पहुंचे। माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं। वर्ष 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया। राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने। कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना ईष्ट मान लिया। इससे राजा को कुष्ट रोग से मुक्ति मिल गई। रोग मुक्त होने की खुशी में राजा ने सभी 365 देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया और खुशी में उत्सव मनाया। बाद में हर साल मनाने से यह एक परंपरा बन गई।

यहीं से पड़ी थी उत्सव की नींव

श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की। तभी से भगवान श्री रघुनाथ की प्रधानता में कुल्लू के हर छोर से पधारे देवी-देवताओं का महासम्मेलन यानि दशहरा मेले का आयोजन अनवरत चला आ रहा है। यह दशहरा उत्सव धार्मिक, सांस्कृति और व्यापारिक रूप से विशेष महत्व रखता है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक का सफर

कुल्लू दशहरा उत्सव देवी-देवताओं और कुछ रियासतों तक ही सीमित था लेकिन धीरे-धीरे इसका व्यापारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व बढ़ता गया। साल 1966 में दशहरा उत्सव को राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा दिया गया और 1970 को इस उत्सव को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा तो हुई लेकिन मान्यता नहीं मिली7 वर्ष 2017 में इसे अंतर्राष्ट्रीय उत्सव का दर्जा प्राप्त हुआ है।

1972-73 में नहीं मनाया था दशहरा उत्सव

साल 1971 कुल्लू दशहरा उत्सव में गोलीकांड हुआ था और इस दौरान उत्सव में भगदड़ मच गई थी और गोलियां चलाई गईं थी। उसके बाद 1972-73 में 2 वर्षों तक दशहरा उत्सव नहीं मनाया गया लेकिन वर्ष 1974 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. वाईएसपरमार ने उत्सव को मनाने की पहल की और उसके बाद निरंतर उत्सव मनाया जा रहा है।

राज परिवार द्वारा निभाई जा रही प्राचीन परम्परा

दशहरा उत्सव के दौरान राज परिवार प्राचीन परम्पराओं का निर्वाहन करता हैञ भगवान रघुनाथ की पूजा पद्धति, हार-श्रृंगार, नरसिंह भगवान की जलेब के साथ लंका दहन की प्राचीन परम्परा भी निभाई जाती है। भाजपा नेता और पूर्व सांसद और पूर्व विधायक महेश्वर सिंह भगवान रघुनाथ के मुख्य छड़ीबरदार हैं।

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