Edited By Kuldeep, Updated: 03 Jan, 2025 09:18 PM
एक ऐसा महायज्ञ, जो सांसें थमा देता है और उस दौरान हर किसी की धड़कनें मानों रुक सी जाती हैं। 40 वर्षों के बाद रोहड़ू की स्पैल घाटी के दलगांव में आयोजित हो रहे भूंडा महायज्ञ के तीसरे दिन शनिवार को यहां 70 वर्षीय बुजुर्ग 9वीं बार 400 से 500 मीटर लंबी...
रोहड़ू (शिमला) (संतोष कुमार): एक ऐसा महायज्ञ, जो सांसें थमा देता है और उस दौरान हर किसी की धड़कनें मानों रुक सी जाती हैं। 40 वर्षों के बाद रोहड़ू की स्पैल घाटी के दलगांव में आयोजित हो रहे भूंडा महायज्ञ के तीसरे दिन शनिवार को यहां 70 वर्षीय बुजुर्ग 9वीं बार 400 से 500 मीटर लंबी रस्सी और 6 इंच मोटी स्वयं तैयार की गई लकड़ी की काठी पर फिसल कर इस हैरतअंगेज कारनामे यानी महाआहुति को अंजाम देंगे। महायज्ञ के दूसरे दिन शुक्रवार को यहां शिखा पूजन और फेर रस्म अदा की गई। शिखा पूजन में देवता बकरालू के नए मंदिर की छत पर चारों दिशाओं की पूजा-अर्चना की गई और देवताओं ने रक्षा सूत्र बांधे।
देवता के गुर तथा ब्राह्मणों द्वारा पूजा-अर्चना कर मंदिर की छत पर पवित्र ध्वज बाधी गई तथा चारों दिशाओं की पूजा की गई। फेर की रस्म को निभाया गया, जिसमें देवता के खूंदों द्वारा अस्त्र-शस्त्रों के साथ नृत्य करते हुए गांव के चारों तरफ की परिक्रमा की गई। भूंडा महायज्ञ में पहुंचे मेहमान देवता मोहरिश, महेश्वर व बौंद्रा आदि अपने-अपने खूंदों के साथ ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते हुए मंदिर प्रांगण पहुंचे तथा देव मिलन हुआ। देव मिलन की इस रस्म को देखने के लिए हजारों लोग देवता बकरालू महाराज की स्थली दलगांव में मौजूद रहे और देव मिलन के बाद सभी देवता व खूंद दिनभर पौराणिक रीति-रिवाज के अनुसार नृत्य करते रहे।
बेड़ा जाति से संबंध रखने वाले दलगांव के सूरत राम 70 वर्ष की आयु में 9वीं बार भूंडा महायज्ञ में बेड़ा की रस्म निभाएंगे। सूरत राम ने पहली बार 20 वर्ष की आयु में रस्सी पर फिसल कर खाई पार करते हुए बेड़ा की रस्म निभाई थी तथा उसके पश्चात उन्होंने कई जगह हुए भूंडा महायज्ञ में यह रस्म निभाई। अब दलगांव में हो रहे भूंडा महायज्ञ में वह 70 वर्ष की आयु में 9वीं बार बेड़ा की रस्म निभा रहे हैं। इसके लिए वह अपने आप को भाग्यशाली मानते हैं।
भगवान परशुराम ने की थी महायज्ञ की शुरूआत
2 सगे भाई निभाते हैं अहम भूमिका
भूंडा महायज्ञ की उत्पत्ति भगवान परशुराम से जुड़ी है, जिन्होंने नरमुंडों की बलि दी थी, जिससे इसे नरमेघ यज्ञ भी कहा जाता है। यह अनुष्ठान बुशहर रियासत के राजाओं की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है। रोचक बात यह है कि इस महायज्ञ में एक व्यक्ति सूरत राम 9वीं बार अपनी जान जोखिम में डाल कर महाआहुति संपूर्ण करेगा, इस आहुति को बेड़ा कहा जाता है। स्थानीय भाषा में इसे भूंडा महायज्ञ कहा जाता है। माना जाता है कि इस महायज्ञ की शुरूआत महर्षि भगवान परशुराम ने की थी।
दरअसल इस पूरे महायज्ञ का मुख्य आकर्षण इस बेड़े द्वारा की जाने वाली आहुति होती है, जिसे देखकर दर्शक हैरान हो जाते हैं। दूसरे गांव में रहने वाला यह बेड़ा एक वर्ष पहले ही भूंडा महायज्ञ वाले गांव में आ जाता है और इसके बाद गांव वाले और मंदिर कमेटी के लोग एक साल तक बेड़ा व इसके परिवार का लालन-पालन करते हैं। इस दौरान यह बेड़ा खास तरह की घास से रस्सी बुनता है, जिस पर बैठकर इसे वह महाकार्य करना होता है।
करीब 400 से 500 मीटर लंबी और 6 इंच मोटी रस्सी को भूंडा महायज्ञ के दूसरे दिन एक पहाड़ी की चोटी से लेकर दूसरे पहाड़ की दूसरी ओर बांध दिया जाता है। यह रस्सी इतनी पवित्र होती है कि कई दिन तक इसे पानी में रखा जाता है। पानी में रहने के बाद जब इसे बांधने के लिए मुख्य स्थल तक ले जाया जाता है तो इसका जमीन को छूना अपवित्र माना जाता है। फिर भूंडा महायज्ञ के तीसरे दिन बेड़ा को इस रस्सी पर एक काठी पर बिठा दिया जाता है। फिर उसके दोनों पैरों पर बराबर वजन बांधकर छोड़ दिया जाता है और यह बेड़ा अपनी ही बनाई रस्सी पर फिसलता हुआ पहाड़ी की तलहटी पर पहुंच जाता है। जब बेड़ा फिसल रहा होता है तो उस वक्त देखने वालों की सांसें थम जाती हैं, क्योंकि यह बेड़ा किसी भी सहारे से बंधा नहीं होता है और पैरों के नीचे गहरी खाई होती है।
अदालत के हस्तक्षेप के बाद पुलिस नैट डाले रहती है खड़ी
आज तक बेड़ा रस्सी से नहीं गिरा
हालांकि अदालत के हस्तक्षेप के बाद आजकल कुछ जगह पर पुलिस नैट पकड़ कर खड़ी रहती है, लेकिन रोचक बात यह है कि आज तक इतिहास में कभी भी यह बेड़ा रस्सी से नहीं गिरा। इस सारे कार्य के दौरान यह बेड़ा सफेद पोषाक धारण किए होता है, जिसे कफन कहा जाता है। रस्सी के नीचे वाले छोर में उसकी पत्नी विधवा का रूप धारण किए हुए बैठी होती है। जैसे ही बेड़ा अपनी मंजिल पर सही-सलामत पहुंचता है, वैसे ही उसकी पत्नी को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। हालांकि यह सारा खेल चंद ही मिनटों का होता है, लेकिन देखने वालों की सांसें थम जाती हैं।
रामपुर व कुल्लू के कुछ क्षेत्रों में इस परंपरा को निभाने वाले परिवार को जेडी के नाम से जाना जाता है। शिमला जिला के रामपुर व रोहड़ू-जुब्बल क्षेत्र में एक ही परिवार के लाेग इस रस्म को हर भूंडा महायज्ञ में निभाते हैं। इस परिवार में सूरत राम व कंवर सिंह 2 भाई भूंडा महायज्ञ की रस्म को निभाते हैं और वे इस परंपरा को अलग-अलग स्थानों पर निभाते आए हैं। अनुष्ठान के संपन्न होने तक न तो बाल और न ही नाखून काटे जाते हैं। इस दौरान अन्य भी प्रतिबंध रहते हैं।