Kangra: 1989 में आतंकवाद से लड़ते BSF जवान की मौत, शव तक नहीं मिला; सदमे में पिता ने तोड़ा दम, मां बोली-बेटे को शहीद का दर्जा दो

Edited By Vijay, Updated: 07 Mar, 2025 12:41 PM

bsf jawan sunil kumar

अमृतसर जिले के खेमकरण में बीएसएफ में सेवारत सुनील 27 अगस्त, 1989 को पंजाब में आतंकवाद विरोधी अभियान के दौरान दुखद मृत्यु हो गई, लेकिन दुखद पहलू यह रहा कि उनका परिवार अपने इकलौते बेटे के अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाया।

पंचरुखी: अमृतसर जिले के खेमकरण में बीएसएफ में सेवारत सुनील 27 अगस्त, 1989 को पंजाब में आतंकवाद विरोधी अभियान के दौरान दुखद मृत्यु हो गई, लेकिन दुखद पहलू यह रहा कि उनका परिवार अपने इकलौते बेटे के अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाया। लदोह गांव की बिमला देवी (80) ने अपना दुख सांझा करते हुए बताया कि उनके 24 वर्षीय बेटे सुनील कुमार लदोहिया बैच नंबर 886990235, 69 बीएन बीएसएफ कैंप खेमकरण ने पंजाब में आतंकवाद से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की। आंसू टपकाते हुए बिमला कहती हैं कि परिवार अपने इकलौते बेटे के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया क्योंकि परिवार को उसके कुछ सामान के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। हालांकि दुखद समाचार के तुरंत बाद उनके कुछ रिश्तेदार शव लेने के लिए अमृतसर पहुंचे। तब बीएसएफ अधिकारियों ने बताया कि सुनील का शव अंतिम संस्कार के लिए भेजा जा चुका था, जिसे सुनकर वे स्तब्ध रह गए। रिश्तेदारों को केवल सुनील की अस्थियां मिलीं। अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने के लिए वे अमृतसर से सीधे हरिद्वार गए। इसके बाद परिवार कई महीनों तक गहरे सदमे में रहा।

सुनील के पिता बिहारी लाल लदोहिया अपने इकलौते बेटे के अंतिम संस्कार से पहले उसे देख न पाने के सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके। सुनील की मृत्यु होने के कुछ महीनों बाद 1990 की शुरूआत में उनके पिता का निधन हो गया। पति की मृत्यु के बाद बिमला देवी असहाय हो गईं क्योंकि उनके पास कोई सहारा नहीं था। एक साल पहले पंचायत ने उनके घर आने-जाने के लिए टाइलों का रास्ता निर्माण किया है। बिमला देवी से जब पूछा गया कि हुआ क्या था तो वह कहती हैं कि मुझे आज तक नहीं पता चला कि हुआ क्या था। मैं तो अपने बेटे को अंतिम बार देख तक नहीं पाई।

गुमनामी में परिवार
कोर्ट में जनहित याचिका दायर होने के बाद बीएसएफ ने कोर्ट के आदेश पर 1998 से परिवार की पैंशन शुरू की, जबकि सुनील की मृत्यु 1990 में हुई थी। कोर्ट ने यह माना कि पैंशन का कानून माता-पिता के लिए 1998 में लागू हुआ था और 1998 से पैंशन देना शुरू किया गया। आज तक यह परिवार गुमनाम ही रहा है। माता बिमला चाहती हैं कि स्व. सुनील को शहीद का दर्जा मिले। उसके नाम का स्मारक, गेट व उनके घर तक जाने वाली सड़क का नाम स्व. शहीद सुनील के नाम रखा जाए। सुनील की 3 बहनें हैं। 2 शादीशुदा तथा एक विधवा है, जो मां के पास ही रहती है।
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