Edited By Kuldeep, Updated: 01 Apr, 2025 10:13 PM

प्रदेश हाईकोर्ट ने डॉक्टर प्रदीप कुमार शर्मा को बतौर पशुपालन निदेशक के तौर पर दी गई पुनर्नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया है।
शिमला (मनोहर): प्रदेश हाईकोर्ट ने डॉक्टर प्रदीप कुमार शर्मा को बतौर पशुपालन निदेशक के तौर पर दी गई पुनर्नियुक्ति को अवैध ठहराते हुए तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया है। न्यायाधीश तरलोक सिंह चौहान और न्यायाधीश सुशील कुकरेजा की खंडपीठ ने याचिकाकर्त्ता डॉ. विशाल शर्मा और संजीव धीमान द्वारा दायर याचिकाओं को स्वीकारते हुए यह आदेश जारी किए। कोर्ट ने आधिकारिक प्रतिवादियों को पुनः डीपीसी बुलाने तथा याचिकाकर्त्ता विशाल शर्मा को भी अन्य पात्र उम्मीदवारों के साथ डीपीसी में विचार करने योग्य मानने के आदेश जारी किए हैं। प्रार्थियों ने दिनांक 2 जनवरी 2025 की अधिसूचना का विरोध किया था जिसके तहत डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा को पशुपालन निदेशक के पद पर पुनर्नियुक्ति प्रदान की गई थी तथा प्रतिवादियों को निदेशक के पद पर याचिकाकर्त्ताओं की पदोन्नति के लिए डीपीसी की बैठक आयोजित करने का निर्देश देने की मांग की थी। कोर्ट ने मामले से जुड़े रिकॉर्ड का अवलोकन कर पाया कि कृषि एवं पशुपालन मंत्री के पत्र दिनांक 12 दिसम्बर 2024 के आधार पर मुख्यमंत्री से प्रदीप कुमार शर्मा को सेवा विस्तार प्रदान करने का अनुरोध किया था। कोर्ट ने पाया कि यह प्रस्ताव मुख्यमंत्री के समक्ष दिनांक 17 दिसम्बर 2024 को रखा गया था।
इसके बाद विभाग ने फाइल पर कार्रवाई की। विभागीय फाइल को सक्षम प्राधिकारी के समक्ष रखा गया और अंततः फाइल मुख्य सचिव के पास पहुंची। जब मामला मुख्यमंत्री के समक्ष दिनांक 30 दिसम्बर 2024 को रखा गया, तो उन्होंने लिखित रूप में कहा कि प्रतिवादी को 6 महीने के लिए फिर से नियोजित किया जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी को सार्वजनिक हित में तत्काल प्रभाव से 6 महीने की अवधि के लिए अधिसूचना दिनांक 2 जनवरी 2025 के तहत निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया। प्रार्थियों ने इस अधिसूचना को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। कोर्ट ने याचिकाओं को स्वीकारते हुए कहा कि सरकार एक ओर सार्वजनिक हित में पुन: नियोजन की आवश्यकता और दूसरी ओर अन्य पात्र उम्मीदवारों के मामलों पर विचार करने या उनकी अनुपलब्धता के बीच संतुलन बनाने के लिए बाध्य है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी सरकारी कर्मचारी को पुनः नियोजित करने के निर्णय को उपर्युक्त दोनों मानदंडों की कसौटी पर खरा उतरना होगा।
कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने निश्चित रूप से इस बात पर विचार नहीं किया कि विभाग में अन्य योग्य उम्मीदवार उपलब्ध हैं या नहीं। राज्य सरकार का यह रवैया निश्चित रूप से समानता और प्रशासनिक आवश्यकताओं के संतुलन को सार्वजनिक हित के बजाय निजी/व्यक्तिगत हित की ओर इशारा करता है। कोर्ट ने कहा कि हमें यह दोहराने की आवश्यकता है कि सामान्य रूप से, पुनर्नियुक्ति/विस्तार के संबंध में सरकार की शक्ति निरपेक्ष है, लेकिन यह नियमों या निर्देशों में प्रदान की गई शर्तों और सीमाओं के अधीन है। एक बार जब सरकार यह राय बना लेती है कि यह सार्वजनिक हित में है, तो ऐसी राय की शुद्धता को सामान्य रूप से न्यायालयों के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है। हालांकि, यदि ऐसा निर्णय मनमाना है, तो न्यायालय के लिए ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करना होगा। एक व्यक्ति को पुनर्नियुक्ति/विस्तार मिलने का अर्थ है 6 या 7 व्यक्तियों की पदोन्नति में देरी। कोर्ट ने कहा कि यह पूरी तरह से तय है कि सेवा में विस्तार/पुनर्नियुक्ति केवल असाधारण परिस्थितियों में ही की जानी चाहिए, जबकि वर्तमान मामला एक "खराब व्यवस्था" है क्योंकि पुनर्नियुक्ति अवैध रूप से की गई है।