कारगिल दिवस: कैप्टन बत्रा की बहादुरी को सलाम, आखिरी सांस तक की देश की रक्षा (Video)

Edited By Ekta, Updated: 26 Jul, 2018 02:40 PM

कारगिल युद्ध में भारतीय जवानों के अदम्य साहस की कहानी सदियों तक याद रखी जाएगी। देश समेत वीरभूमि हिमाचल के जवानों ने बहादुरी की मिसाल पेश की। इनमें एक नाम है कैप्टन विक्रम बत्रा। हिमाचल के इस सपूत ने देश के लिए शहादत दी और इन्हें मरणोपरांत परमवीर...

पालमपुर (संजीव): कारगिल युद्ध में भारतीय जवानों के अदम्य साहस की कहानी सदियों तक याद रखी जाएगी। देश समेत वीरभूमि हिमाचल के जवानों ने बहादुरी की मिसाल पेश की। इनमें एक नाम है कैप्टन विक्रम बत्रा। हिमाचल के इस सपूत ने देश के लिए शहादत दी और इन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया। कैप्टन बत्रा का जन्म 9 सितंबर, 1974 को पालमपुर में हुआ था। उनके अभिभावक का नाम जी. एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा, कैप्टन विक्रम बत्रा को शेरशाह, कारगिल का शेर भी कह के बुलाया जाता था। उन्होंने 18 साल की उम्र में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे।
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कैप्टन विक्रम बत्रा शहीद- 7 जुलाई, 1999 कारगिल) परमवीर चक्र से सम्मानित भारत के सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन 1999 में मरणोपरांत मिला। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया। 
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सेना में चयन विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। 


शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। 


उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे 'जय माता दी' कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने युवाओं को सन्देश देते हुए कहा कि देश सर्वोपरि है वो अपनी संस्कृति से जुड़े रहे और चरित्रवान बने रहे और देश को सर्वोच्च स्थान पर रखे। 

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