पर्यावरण संरक्षण के लिए जैव विविधता और जनसहयोग परम आवश्यक: डीएफओ

Edited By Jyoti M, Updated: 07 Jun, 2025 09:58 AM

biodiversity and public cooperation is absolutely necessary

कोई भी योजना अथवा प्रयास जन सहयोग के बिना सफल नहीं हो सकता है इसी बात को ध्यान में रखते हुए डलहौजी वन मंडल ने एक सराहनीय कार्य किया है, जिसके तहत सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से वनों में आग की घटनाओं को कम करने के प्रयास किए गए हैं, ताकि जैव विविधता...

चंबा। कोई भी योजना अथवा प्रयास जन सहयोग के बिना सफल नहीं हो सकता है इसी बात को ध्यान में रखते हुए डलहौजी वन मंडल ने एक सराहनीय कार्य किया है, जिसके तहत सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से वनों में आग की घटनाओं को कम करने के प्रयास किए गए हैं, ताकि जैव विविधता में भी सुधार हो सके। नियमित रूप से वनों में लगने वाली आग से परावर्तित अनुक्रमण (रेट्रोगेसिव सक्सेशन) को बढ़ावा मिलता है और प्रजातियां अनुक्रमण (सक्सेशन) की ओर आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इसलिए वनों में आग की घटनाओं को कम करने के लिए वन विभाग द्वारा ग्रामीण वन प्रबंधन समितियों के सदस्यों के माध्यम से वृक्षारोपण क्षेत्रों से चीड़ की पत्तियों को हटाया गया है।

पिछले दो वर्षों में लगातार आग से जले हुए वन क्षेत्रों में विभिन्न देसी प्रजातियों के बीज बोए गए जबकि उच्च आर्द्रता वाले नालों पर सैलिक्स प्रजाति के पोल लगाए गए हैं। इसके अलावा, मंडल स्तर पर गत वर्ष 171 चीड के चेक डैम लगा कर 10.60 क्विंटल चीड़ की पत्तियों को एकत्र कर जंगल के भीतर नालों पर जूट की रस्सियों से चेक डैम का निर्माण किया गया है, जिससे न केवल जंगल से उच्च ज्वलनशी चीड़ की पत्तियों का भार कम हो रहा है, बल्कि नालों को स्थिर करने और मिट्टी के कटाव को रोकने में भी मदद मिल रही है। यह सभी कार्य जन सहभागिता से किये गए हैं।

इस विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए डीएफओ डलहौजी रजनीश महाजन ने बताया कि वन सुरक्षा और संरक्षण के लिए समुदायों को शामिल करने के लिए, नर्सरींयों में उच्च आर्थिक रिटर्न वाली प्रजातियों के पालन पर विशेष ध्यान दिया गया। लसूड़ा जैसी प्रजातियाँ, जिन्हें तैयार करना कठिन है क्योंकि इस प्रजाति के बीज हमेशा कीट लार्वा द्वारा खाए जाते हैं।  इस संबंध में क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान और प्रशिक्षण स्टेशन, जाच्छ से नर्सरी श्रमिकों को विशेष प्रशिक्षण प्रदान कराया गया। बाजार में लसूड़ा 70 से 80 रुपये प्रति किलोग्राम बिकता है और प्रति वयस्क पेड़ जिसकी आयु लगभग 10 वर्ष हो, उसका उत्पादन प्रत्येक वर्ष लगभग 50 किलोग्राम होता है। इस प्रकार के जंगली फलदार पौधे भविष्य में ग्रामीण क्षेत्रों में आम नागरिकों के लिए आय का मजबूत साधन बन सकते हैं।

रजनीश महाजन ने बताया कि आर्थिक दृष्टि से लाभदायक अन्य फलदर पौधों की प्रजातियों में अखरोट, दारू, हरड़, बेहड़ा, आंवला और रीठा आदि शामिल हैं, जो इस क्षेत्र की मूल प्रजातियां हैं और इन्हें आजीविका के लिए गांव के साथ लगते जंगलों के किनारे इसी वर्ष वर्षा ऋतु के दौरान लगाया जाएगा, जिससे स्थानीय लोग जंगलों को जंगल की आग से बचाकर आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकेंगे और इससे जैव विविधता में भी बढ़ोत्तरी होगी ।

अग्निरोधी प्रजातियां जैसे कैंथ, खजूर, दाडू, फगुड़ा, अमलताश, टोर, फगुड़ा, त्रैम्बल आदि प्रजातियां को भी नर्सरी में उगाया गया है, क्योंकि ये प्रजातियां चीड़ के जंगलों में भी समान रूप से जीवित रह सकती हैं, जहां हर वर्ष जंगल में आग लगती है। यही नहीं समृद्ध जैव विविधता को बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित किया गया है, इसलिए कई देसी प्रजातियों को नर्सरी में उगाया गया है और नर्सरींयों का नाम जैवविविध नर्सरी रखा गया है और उनमें से कुछ एक नर्सरींयों का आधुनिकीकरण किया गया है और प्रजातियों को रूट ट्रेनर में कोको पीट और वर्मीकम्पोस्ट के साथ उगाया गया है, जो वजन में बहुत हल्का होने के साथ-साथ पौधों में उच्च नमी बनाए रखता है, और जड़ों को अच्छे से विकसित होने में मदद करता है। नर्सरी में रूट ट्रेनर में पीपल, बरगद, फगुड़ा, रूम्बल, त्रैम्बल और पलाख आदि के 30,000 से अधिक पौधे उगाए गए हैं, जिन्हें बाद में राजमार्गों के पास फाइकस वन के नाम से लगाया जाएगा, जो न केवल हरित फेफड़े के रूप में कार्य करेंगे, अपितु पक्षियों इत्यादि के लिए भी लाभकारी होंगे।

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