पूर्व चुनाव आयुक्त KC शर्मा ने सुनाए संस्मरण, चुनाव का एक ऐसा भी दौर था

Edited By Ekta, Updated: 07 May, 2019 03:17 PM

former election commissioner kc sharma told the memoirs

देश में वर्ष 1951 में हुए पहले संसदीय चुनाव आम लोगों के लिए एक पवित्र त्यौहार सरीखे थे। उस समय मतदान करने आए लोग खासकर महिलाएं मतपेटियों की पूजा करने लगती थीं। मतपेटियों पर चावल और फूल चढ़ाए जाते थे। मतपेटियों में लोग वोट की बजाय एक आना, उस समय की...

धर्मशाला (सौरभ सूद): देश में वर्ष 1951 में हुए पहले संसदीय चुनाव आम लोगों के लिए एक पवित्र त्यौहार सरीखे थे। उस समय मतदान करने आए लोग खासकर महिलाएं मतपेटियों की पूजा करने लगती थीं। मतपेटियों पर चावल और फूल चढ़ाए जाते थे। मतपेटियों में लोग वोट की बजाय एक आना, उस समय की मुद्रा तक डाल जाते थे। 1950-60 के दशक के संसदीय चुनावों के संस्मरण ताजा करते हुए राज्य के पूर्व चुनाव आयुक्त के.सी. शर्मा कहते हैं कि देश के शुरूआती संसदीय चुनावों में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती थी, चुनावी प्रतिद्वंद्विता में भी एक-दूसरे के प्रति सम्मान होता था। अब चुनावों में यह राजनीतिक शुचिता नहीं दिखती। 
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जब प्राइमरी स्कूल के मास्टर को बनाया उम्मीदवार

पूर्व चुनाव आयुक्त के.सी. शर्मा 1951 के संसदीय चुनाव का एक रोचक किस्सा सुनाते हुए बताते हैं कि उस समय चुनाव में कांग्रेस ही एकमात्र मुख्य पार्टी थी। शेष सभी दल बिखरे हुए थे। लेकिन कांग्रेस को भी उम्मीदवार ढूंढे नहीं मिल रहे थे। ऐसे में प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डा. वाई.एस. परमार हर जिले का दौरा कर ईमानदार और योग्य लोगों को राजनीति में लाए। मंडी में कोई उम्मीदवार न मिला तो कांग्रेस नेता कर्म चंद हराबाग में प्राइमरी स्कूल के टीचर बेसर राम को चुनाव लड़ने के लिए मनाने पहुंच गए। काफी ना-नुकुर के बाद बेसर राम चुनाव लडऩे को तैयार हुए।
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जानिए कौन हैं के.सी. शर्मा

के.सी.शर्मा का पूरा नाम कृष्ण चंद शर्मा है। वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। वर्ष 1999 से 2004 तक वह राज्य निर्वाचन आयुक्त रहे हैं। इससे पहले वह जिला कांगड़ा के डी.सी. भी रह चुके हैं। सेवानिवृत्त होने के बाद से वह धर्मशाला के सिविल लाइंस स्थित अपने निवास में रहते हैं व कई सामाजिक कार्यों से भी लगातार जुड़े हुए हैं।

ऐसे हुई चुनाव आयोग की स्थापना

पूर्व चुनाव आयुक्त ने बताया कि आजादी से पहले अंग्रेजों के राज में सरकारी विभाग ही सैंट्रल असैंबली और प्रोवैंशियल असैंबली के चुनाव करवाते थे। आजादी के बाद निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए एक अलग संस्था की जरुरत महसूस हुई। ऐसे में 1950 में चुनाव आयोग अस्तित्व में आया। पहले चुनाव आयोग में एक ही मुख्य चुनाव आयुक्त होता था। बाद में टी.एन. शेषन के समय 2 और चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की परंपरा शुरू हुई। भारत का चुनाव आयोग 90 के दशक में श्रीलंका में चुनाव करवाने के लिए पर्यवेक्षक भेज चुका है। भारतीय चुनाव आयोग विदेश में सूडान में भी चुनाव करवा चुका है। श्री शर्मा बताते हैं कि 1951 में हुए पहले संसदीय चुनाव में हर उम्मीदवार के नाम की अलग मतपेटी होती थी। लोग जिस उम्मीदवार को पसंद करते, उसके नाम की मतपेटी में अपना वोट डालते थे। उस समय सभी मतपेटियों की ढुलाई व मतों की गणना मुश्किल कार्य होता था। 1957 के बाद एक ही मतपेटी प्रयोग होने लगी, जिसमें मतदाता अपने पसंदीदा उम्मीदवार के मतपत्र पर निशानी लगाते थे। लेकिन इसमें भी कई बार गलतियां हो जाती थीं। 1982 में पहली बार केरल के नॉर्थ परावूर में हुए चुनाव में ई.वी.एम. का प्रयोग हुआ। कई परीक्षणों के दौर के बाद 2004 के आम चुनाव ई.वी.एम. से करवाए गए।

जो अच्छा आदमी मिला, उसे लड़वा देते थे चुनाव

के.सी. शर्मा बताते हैं कि शुरूआती चुनाव में लोगों की नजर में राजनीतिक दल नहीं, बल्कि व्यक्ति के गुण अहमियत रखते थे। लोग अपने क्षेत्र में योग्य व ईमानदार प्रत्याशी को खुद उतार कर निर्विरोध विजयी बनाते थे। यही कारण है कि शुरूआती चुनावों में निर्दलीय प्रत्याशी बड़ी संख्या में जीत कर आते थे। उस समय अधिकांश इलाकों में सड़कें नहीं होती थीं, वाहन भी नाममात्र होते थे। ऐसे में चुनाव प्रचार भी नगण्य ही होता था।

कोड ऑफ कंडक्ट की हो कानूनी प्रासंगिकता

पूर्व चुनाव आयुक्त के.सी. शर्मा चुनावों में कोड ऑफ कंडक्ट के बढ़ते उल्लंघन को लेकर कहते हैं कि बिना कानूनी आधार के कोड ऑफ कंडक्ट का अधिक लाभ नहीं है। इसे लेकर चुनाव आयोग के पास भी सीमित अधिकार हैं। ऐसे में कोड ऑफ कंडक्ट को प्रशासनिक ही नहीं, बल्कि कानूनी रूप से भी मजबूत करना समय की मांग है।

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