चंदेल वंश की महानतम् वीरांगना रानी दुर्गावती की कहानी

Edited By Kuldeep, Updated: 04 Oct, 2024 04:41 PM

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वर्तमान के मध्य प्रदेश एवं कुछ भाग उत्तर प्रदेश के बुन्लदेलखण्ड में 9वीं से 15वीं शताब्दी तक चंदेल राजवंश का शासन रहा।

सोलन: वर्तमान के मध्य प्रदेश एवं कुछ भाग उत्तर प्रदेश के बुन्लदेलखण्ड में 9वीं से 15वीं शताब्दी तक चंदेल राजवंश का शासन रहा। इतिहासकार आरसी मजूमदार (1977) द्वारा लिखित एंशियट इंडिया नामक पुस्तक के अनुसार 831 ई. से लेकर 1315 ई. तक खजुराहों, कालिंजर एवं महाेबा से इन राजाओं ने मध्यकालीन युग में बुंदेलखण्ड नामक भौगोलिक क्षेत्र एवं कुछ आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। हिमाचल प्रदेश में 697 से 1849 ई. में एक राज्य के रूप में तथा 1849 से 1948 तक एक रियासत के रूप में कहलूर रियासत में चंद्रवशी चन्देल राजपूत वंश का शासन रहा। यद्यपि राजा बीर चन्द 697-738 ई. तक इस राज्य के संस्थापक रहे लेकिन इसका नाम राजा कहल चन्द, जिनका शासन 890-930 ई. के आसपास रहा के नाम पर रखा गया। इस कहलूर रियासत में अन्तिम शासक राजा आनन्द चन्द रहे, जिन्हाेंने कहलूर रियासत की बागडोर 1933 से सम्भाली तथा ताउम्र 12 अक्तूबर, 1983 तक राजा की पद्वी को सुशोभित करते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात राजा आनन्द चन्द भारत की संसद के ऊपरी सदन में राज्य सभा में बिहार से प्रतिनिधित्व किया। सन् 1952-1957 तक लोकसभा सदस्य रहे। इससे पहले 12 अक्तूबर, 1948 से 26 जनवरी, 1950 तक बिलासपुर के मुख्य आयुक्त भी रहे। लगभग 1400 से अधिक वर्ष के चन्देल वंश इतिहास ने इस देश को नारी शक्ति की विरासत के रूप में आज तक की सर्वश्रेष्ठ वीरांगनाओं में से एक रानी दुर्गावती भी दी हैं। रानी दुर्गावती मात्र रानी ही नहीं अपितु अतीत का गौरव और वर्तमान समय की पीढ़ियों की आदर्श हैं। 5 अक्तूबर को रानी दुर्गावती का 500वां जन्मदिन है।

इस महारानी का प्ररेक स्मरण 500 वर्षों के बाद भी मन को गौरवान्वित एवं शरीर को प्रफुल्लित करता है। रानी दुर्गावती का नाम भारत की महानतम् वीरांगनाओं की सबसे अग्रिम पंक्ति में आता है, जिन्हाेंने मातृभूमि और अपने आत्म सम्मान की रक्षा हेतु अपने प्राणाें का बलिदान कर दिया। 5 अक्तूबर, 1524 को दुर्गाष्टमी के दिन नवरात्री का उत्सव चल रहा था। कालिंजर के राजा कीरत सिंह चन्देल के घर एक पुत्री का जन्म हुआ इसलिए नामकरण किया दुर्गावती। रानी का जन्म कालिंजर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में बांदा जिले में स्थित पौराणिक संदर्भ वाले एक ऐतिहासिक दुर्ग में हुआ। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी खजुराहाें के निकट ही स्थित है। कालिंजर दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। चंदेलों द्वारा बनाया गया यह किला चन्देल वंश के शासनकाल की भव्य वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण है। यह किला भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। जब चन्देल शासक आए तो इस पर महमूद गज़नबी, कुतुबुद्दीन एबक व हुमायूं ने आक्रमण कर इससे जीतना चाहा, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। अंत में 1569 में अकबर ने यह किला जीतकर बीरबल को उपहार में दिया।

बाल्यकाल में ही राजा कीरत सिंह ने राजकुमारी दुर्गा काे शस्त्र चलाना सिखाया। इसकी कीर्ति आसपास के क्षेत्राें में फैल गई। गाेंडवाना क्षेत्र के पराक्रमी राजा वीर दलपत शाह के पास दुर्गावती के संस्काराें के साथ-साथ पराक्रम की बातें भी पहुंच गईं। दलपत शाह भी एक सुन्दर एवं पराक्रमी राजकुमार थे। इस तरह चन्देल राजवंश की राजकुमारी जाकि कि बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र, शाैर्यवान, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रभक्त और निर्णय लेने में दक्ष थी ने एक जनजाति समूह के वलिष्ठ युवा राजकुमार दलपत शाह से अपना विवाह करना स्वीकार किया। रानी दुर्गावती एवं दलपत शाह के प्रेम और परिणय की कथाएं आज भी उस क्षेत्र में प्रचल्लित हैं। कुछ वर्षों बाद 1545 ई. में इनके एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम वीर नारायण सिंह रखा गया। दुर्भाग्य से रानी दुर्गावती एवं राजा दलपत शाह का दांपत्य जीवन मात्र 5 वर्ष का ही रहा। राजा की अल्प आयु मृत्यु के उपरांत संकट की घड़ी में रानी ने अपना धैर्य नहीं खाेया तथा बड़ी हिम्मत के साथ काम लिया। प्रजा ने एक प्रजावत्सल मां का रूप देखा। पति के पीछे सती जाने के बदले रानी ने विधवा रहते हुए भविष्य काे संवारने का काम किया। आदर्श कामकाज के लिए इतिहास में जिन राज्य शासनाें का उल्लेख है। पति की अकस्मात् मृत्यु के बाद अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके रानी ने स्वयं गढ़ मंडला के शासन की कमान सम्भाली।

रानी दुर्गावती के गाेंडवाना साम्राज्य की संपन्नता और समृद्धि की चर्चा कड़ा और मानिकपुर के सुबेदार आसफ खान द्वारा मुगल दरबार में की गई। धूर्त और चालाक अकबर ने लूट और विधवा रानी काे कमजाेर समझते हुए तथा बलपूर्वक गाेंडवाना साम्राज्य हथियाने के उद्देश्य से रानी काे आत्म समर्पण के लिए धमकाया। उसने महारानी काे यह संदेश भिजवाया ‘अपनी सीमा राज की, अमल करो परमान। भेजो नाग सुपेत सोई, अरू अधार दीवान।’ परन्तु स्वाभिमानी तथा स्वतन्त्र प्रिय रानी नहीं मानी। फिर धूर्त अकबर का एक और संदेश आया कि ‘स्त्रियाें का काम रहता कातने का है’ ताे रानी ने जवाब में एक सोन े का पींजन भेजा और कहा कि आपका काम रूई धुनकने का है। अकबर इससे तिलमिला गया तथा गाेंडवाना पर युद्ध हेतु अलग-अलग प्रयास करने प्रारंभ किए। वीरांगना दुर्गावती ने कुल 16 बड़े युद्ध लड़े तथा 16 युद्धों में से 15 में विजयी रही जिसमें 12 युद्ध मुस्लिम आक्रान्ताओं से लड़े। राष्ट्रीय सप्ताहिक पान्चजन्य के एक लेख के अनुसार गाेंडवाना में प्रचल्लित है कि छोटे-बड़े सभी युद्धाें की बात की जाए ताे इस पराक्रमी रानी ने 52 युद्ध लडे़ जिनमें 51 युद्धाें में उन्हाेंने विजय प्राप्त की थी। रानी दुर्गावती की युद्ध नीति और कूटनीति विलक्षण थी जिसकी तुलना काकतीय वंश की वीरांगना रूद्रमा देवी और फ्रांस की जान आफ आर्क काे छोड़कर विश्व की अन्य किसी वीरांगना से नहीं की जा सकती है।

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    वह युद्ध के नौ पारम्परिक युद्ध व्यूहाें क्रमशः वज्र व्यूह, क्राैंच व्यूह, अर्द्धचन्द्र व्यूह, मण्डल व्यूह, चक्रशक्ट व्यूह, मगर व्यूह, आरैमी व्यूह, गरूढ़ व्यूह और श्रीन्गातका व्यूह से भली भांति परिचित तथा क्राैंच व्यूह एवं अर्द्धचन्द्र व्यूह में सिद्धहस्त थी। रानी दुर्गावती दाेनाें हाथाें से तीर और तलवार चलाने में निपुण तथा दाांतों से घाेड़े की लगाम थामती थी। जल प्रबंधन और पर्यावरण की दृष्टि से वीरांगना रानी दुर्गावती की योजनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस काल में थीं। अपने साम्राज्य में 1000 तालाब और 500 बांवडि़यों का निर्माण तथा प्रबंधन किया। जल प्रबंधन एवं पर्यावरण की दृष्टि से गाेंडवाना साम्राज्य की व्यवस्थाएं संपूर्ण विश्व में अद्भुत एवं अद्वितीय रही हैं। महारानी का तत्कालीन भारत में गाेंडवाना साम्राज्य प्रथम साम्राज्य था जहा महिला सेना का भी दस्ता था और रानी की बहन कमलावती और पुरागढ़ की राजकुमारी उसकी कमान सम्भालती थी। महिला सशक्तिकरण एवं आधुनिकीकरण की यह एक अद्भुत मिसाल है। आज देश में विभाजनकारी तत्व देश के वनवासी, ग्राम एवं शहर समाज में भेद खड़ा कर देश के सामाजिक ताने-बाने काे ताेड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन एक राजवंश में पैदा हुई वीरांगना का विवाह गाेड़ जनजाति समाज के एक पराक्रमी राजकुमार से परिवारजनों की सहमति से पूरे हर्षाेल्लास से हाेता है। यह सिद्ध करता है कि भारत का वनवासी समाज एवं ग्राम एवं नगर समाज में पूर्व से ही राेटी-बेटी का संबन्ध रहा है। सन् 1564 ई. में अकबर की सेना में उच्च पदास्त अधिकारी आसफ खान ने बुंदेलखंड पर आक्रमण किया।

    युद्ध का दूसरा दिन रानी के जीवन का अंतिम दिन का युद्ध बना। इस बलिदानी बेला पर रानी ने हाथी पर बैठकर युद्ध का नेतृत्व करना शुरू किया। रानी के 20 वर्षीय वीर पुत्र वीर नारायण सिंह ने 3 बार मुगल सेना काे खदेड़ दिया लेकिन तीसरी बार वो इतने घायल हाे गए कि रानी काे विवश होकर उन्हें सुरक्षित स्थान पर भेजना पड़ा। युद्ध के तीसरे पहर में किसी तीरंदाज का एक तीर रानी की कनपटी पर लगा जिसे उन्हाेंने खींच कर निकाल फैंका। फिर एक तीर गर्दन में लगा रानी ने उसे भी खींच कर निकाल फैंका। किन्तु उसका फल गर्दन में ही लगा रह गया और तीराें के घावों से तीव्र रुधिर धारा बहने लगी। अत्यधिक रक्त स्त्राव से रानी बेहाेश हाे गई। जब हाेश आया, ताे समझ में आया कि जीवित सती की देह हैवानियत से चूर यवनाें के हाथ पड़ना अवश्यम्भावी है। अतः रानी ने क्षणाों में निर्णय लेकर महावत से उसका खंजर लेकर स्वयं का सिर काट लिया। इस तरह 24 जून, 1564 काे मात्र 39 वर्ष की अल्प आयु में यह वीरांगना हमेशा-हमेशा के लिए शहीद हाेकर देश की वर्तमान पीढ़ी के लिए एक महान् आदर्श स्थापित कर गई। प्रोफैसर वाजपेयी ने लिखा है कि जिस तलवार की बात सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कालजयी रचना में की है, चमक उठी सन् 57 में जाे तलवार पुरानी थी, वो तलवार रानी दुर्गावती की ही थी। इस घटना का एक अत्यंत मार्मिक छन्द उन्हाेंने लिखा है।

    ”माराेगे आधार नहीं खुद मार लूंगी मैं
    लगने न दूंगी हाथ शत्रु का बदन में।
    इतना ही बोल के कटार से दिल में उतार
    धर दिया तन मातृभूमि के चरण में।
    एक अभिलाष आस मन में लिए थी रानी
    रानी थी मगन बस एक ही मगन में।
    जनमूँ दाेबारा मैं कालिंजर किले में और
    प्राण दूँ दाेबारा गढ़ नर्रई के वन में।“
    भारत वर्ष की इस आदर्श एवं चन्देल राजवंश की महानतम् वीरांगना काे आज उनके 500वें
    जन्मदिन पर श्रद्धापूर्वक नमन।

    PunjabKesari

    डॉ राजेश्वर चंदेल

    कुलपति डॉ वाई एस परमार उद्यानिकी विश्वविद्यालय नौणी, सोलन

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