Edited By Ekta, Updated: 19 Jun, 2019 10:43 AM
कहावतें तब बनती हैं जब वे बार-बार किसी कसौटी पर खरा उतरती हैं। इसका ताजा उदाहरण जगत प्रकाश नड्डा हैं जिन पर ''सब्र का फल मीठा'' वाली कहावत लागू होती है। पटना में जन्मे हिमाचल में पढ़े जगत प्रकाश नड्डा दिल्ली जाकर इतना बढ़ जाएंगे यह शायद उन्होंने भी...
नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): कहावतें तब बनती हैं जब वे बार-बार किसी कसौटी पर खरा उतरती हैं। इसका ताजा उदाहरण जगत प्रकाश नड्डा हैं जिन पर 'सब्र का फल मीठा' वाली कहावत लागू होती है। पटना में जन्मे हिमाचल में पढ़े जगत प्रकाश नड्डा दिल्ली जाकर इतना बढ़ जाएंगे यह शायद उन्होंने भी नहीं सोचा था। वे तो शिमला से 'तंग' होकर दिल्ली की राह निकले थे लेकिन उनके संघर्ष और सब्र का फल इतना मीठा हुआ है कि आज वे दुनिया के सबसे बड़े सियासी संगठन के सर्वेसर्वा बनकर उभरे हैं। करीब 17 साल की उम्र में जेपी (दोस्तों में इसी नाम से लोकप्रिय) ने पटना छात्र संघ में सचिव का पद हासिल किया। उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राह पर वे इस कदर पथिक हुए कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हिमाचल विश्वविद्याल के छात्र संघ के पहले अध्यक्ष रहे।
वामपंथ के गढ़ में 1990 में नड्डा एसएफआई के इंद्र राणा के साथ बराबर वोट लेकर एचपीयू एससीए के अध्यक्ष रहे। बाद में उन्होंने लगातार संगठन को स्थापित किया जिसकी बदौलत आज हिमाचल में विद्यार्थी परिषद न सिर्फ सबसे बड़ा छात्र दल है बल्कि वर्तमान में तो सरकार ही विद्यार्थी परिषद से निकले नेताओं की है। संगठन ने 1993 के विधानसभा चुनाव में हिमाचल के रण में उतारा उसके बाद कई मौके ऐसे आए जब लोगों को लगा कि नड्डा आसानी से बड़े ओहदे पर काबिज हो सकते थे मगर वे चूक गए। लेकिन आज जब उन घटनाओं की विवेचना करेंगे तो पाएंगे कि यदि नड्डा वहां न चूके होते या यूं कह लें कि नड्डा ने वहां जल्दबाजी दिखाई होती तो आज शायद ही वे यहां होते। पहले ही चुनाव में वे तो जीत गए लेकिन उनकी पार्टी बीजेपी की हालत यह थी की 68 की संख्या वाली विधानसभा में बीजेपी के पास 8 विधायक थे। आजाद विधायक भी उस समय बीजेपी से अधिक थे।
इस परिणाम से परेशान संगठन ने नई पीढ़ी को आगे करने का फैसला लिया और जगदेव चंद जैसे नेताओं के होते हुए जेपी नड्डा को बीजेपी विधायक दल का नेतृत्व सौंपा गया। नड्डा ने निराश नहीं किया और पांच साल सत्तापक्ष के साथ जमकर टक्कर ली। कई बार उन्हें सत्तापक्ष के संख्या बल की दबंगई भी झेलनी पड़ी लेकिन वे डटे रहे। हर मसले पर सवाल उठाते, जवाब मांगते और प्रदर्शन करते। वक्त बदला और उनका यह संघर्ष अगले चुनाव में बीजेपी को सत्तासीन कर फलित हुआ। उस समय संगठन मंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी हिमाचल में ही थे और उन्होंने नड्डा की क्षमताओं को करीब से देख लिया था। नड्डा उसी समय मुख्यमंत्री बन गए होते लेकिन समीकरण कुछ ऐसे बने कि उनके नाम पर सैद्धांतिक सहमति के बावजूद खुद उन्होंने प्रेम कुमार धूमल को अधिक वरिष्ठ बताते हुए धूमल के नाम का प्रस्ताव रखा। धूमल की पहली सरकार में नड्डा वनमंत्री बने। 2004 में अगला चुनाव वे हार गए।
2007 में जब दोबारा जीते तो धूमल कैबिनेट में वे वनमंत्री बनाए गए। लेकिन दो साल बीतते-बीतते नड्डा ने सरकार से "वनवास" ले लिया। मंत्रिपद छोड़ वे संगठन की राह निकल लिए। दिल्ली पहुंचे और फिर से नई ऊर्जा के साथ संगठन के काम में जुट गए। संगठन ने जो कहा किया, जहां भेजा वहां गए। नितिन गडकरी जब बीजेपी अध्यक्ष बने तो उन्होंने नड्डा को महासचिव बनाया। नड्डा ने मन लगाकर काम किया। गडकरी गए तो अन्य समूहों को लगा कि नड्डा भी जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शाह ने नड्डा को और बेहतर ढंग से संजोया। दरअसल तब तक मोदी युग शुरू हो चुका था और नरेंद्र मोदी नड्डा की क्षमताओं को बरसों पहले से जानते थे। उन्हीं क्षमताओं का शाह ने पूरा लाभ उठाया और नड्डा को लगातार बड़ी जिम्मेदारियां सौंपी गयीं। मोदी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए भी वे संगठन में महासचिव बने रहे। बीच में जब हिमाचल में 2017 के विधानसभा चुनाव आए तो सर्वत्र नड्डा को मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चा होने लगी। हालांकि तब भी उन्होंने यही बयान दिया कि संगठन ऐसा नेतृत्व ढूंढ रहा है जो कम से कम एक दशक तक लगातार सरकार चलाए।
मतदान से एक सप्ताह पहले जब प्रेम कुमार धूमल को सीम फेस घोषित किया गया तो फिर लगा कि नड्डा चूक गए। लोगों को लगा कि शाह के इतना करीब होकर भी नड्डा खुद का नाम आगे नहीं करवा पाए। फिर उसी चुनाव के नतीजे आए और जब हिमाचल में अलग किस्म का जनादेश आया तब भी नड्डा को सीएम बनाये जाने की चर्चा हुई। जनता को लगा कि चलो अबके तो तय ही है। लेकिन नड्डा दिल्ली से शिमला आए और जयराम ठाकुर के नाम की घोषणा की। एक बार फिर लगा कि नड्डा चूक गए। लेकिन शायद नियति ने उनके लिए बड़ी भूमिका लिख रखी थी। इसलिए वे दूसरी जगहों पर चूक रहे थे। इस बार जब शाह सरकार में शामिल हुए तो यह तभी तय हो गया था कि उनकी जगह नड्डा ही लेंगे। हालांकि बीच में भूपेंद्र यादव का नाम भी चर्चा में आया।
इसी बीच चार राज्यों के चुनाव के नाम पर जब अमित शाह हो अध्यक्ष बनाए रखने का फैसला हुआ तो उसके बाद भी इस बात की सम्भावना बढ़ गई की दिसंबर तक का इंतज़ार कहीं नड्डा के लिए लम्बा न हो जाए। लेकिन नड्डा शांत बने रहे और अमित शाह ने उनसे मित्रता निभाते हुए कार्यकारी अध्यक्ष का दांव चल दिया ताकि तमाम कयास विराम लें। अब तय है कि शाह के औपचारिक रूप से पद छोड़ते ही नड्डा स्थायी अध्यक्ष हो जाएंगे और इस तरह नड्डा को बिना मांगे वो सब मिल गया जो शायद मांगकर भी नहीं मिलता। बिना शक इसके पीछे उनकी काम करने की क्षमता और उससे भी बढ़कर कर्म के बदले में फल न चाहने की आदत रही जिसने उन्हें इतना बड़ा प्रतिफल दिया। यानी सब्र का फल मीठा।