हर साल भूस्खलन की मार झेलने वाली कांगड़ा घाटी रेल मार्ग की लाइफ लाइन वैंटीलेटर पर

Edited By Ekta, Updated: 03 Oct, 2018 10:08 AM

on the life line ventilator of kangra valley rail

90 साल पुराना 162 किलोमीटर लम्बा कांगड़ा घाटी रेल मार्ग, 33 रेलवे स्टेशन। पठानकोट से लेकर जोगिंद्रनगर तक 2 जिलों से गुजरता यह रेल मार्ग कांगड़ा की लाइफ लाइन कहलाता है लेकिन यह लाइफ लाइन बीते कुछ वर्षों से खुद वैंटीलेटर पर है। हर साल बरसात में रेल...

धर्मशाला (सौरभ सूद): 90 साल पुराना 162 किलोमीटर लम्बा कांगड़ा घाटी रेल मार्ग, 33 रेलवे स्टेशन। पठानकोट से लेकर जोगिंद्रनगर तक 2 जिलों से गुजरता यह रेल मार्ग कांगड़ा की लाइफ लाइन कहलाता है लेकिन यह लाइफ लाइन बीते कुछ वर्षों से खुद वैंटीलेटर पर है। हर साल बरसात में रेल मार्ग भूस्खलन के चलते डेढ़-दो माह बंद हो जाता है। इस बार यह वक्त लम्बा हो गया है और बढ़ रहा है।

लोगों का दर्द: कौन सुनेगा, किसे सुनाएं  
जंगल के रास्ते बच्चे स्कूल-कालेज जाते हैं। गांव धार, धांगड़, लूणसू व त्रिपल के पुरुषोत्तम सिंह, राकेश,सतीश, रोहित, सुषमा देवी ,मेहर चंद, सीता राम, रक्षपाल हरवंस ,अतुल ,अजय ,रजत, नरेश, मुकेश, पुरुषोत्तम, राजीव, अभिजीत व पूर्व जिला परिषद सदस्य सरूप सिंह कहते हैं कि उनके गांवों तक सड़क नहीं पहुंची है। रेलगाड़ी ही आवागमन का साधन है। बीते सालों से बरसात में पठानकोट से गुलेर तक एक-दो रेलगाड़ियां चलाई जाती थीं। इस बार वे भी बंद हैं। विद्यार्थी पैदल जंगल के रास्ते स्कूल-कालेज जा रहे हैं।  

हजारों लोगों को इंतजार
कांगड़ा के आगे पौंग किनारे बसे गुलेर, देहरा और ज्वाली हलकों के लोग सफर के लिए रेल पर निर्भर हैं क्योंकि उनके गांव तक या तो पक्की सड़क नहीं है या बस की सुविधा आज तक नहीं मिली है। रेल विभाग कभी डिब्बों तो कभी इंजनों की कमी के बहाने रेल परिचालन बंद कर देता है, बरसात में तो ल्हासे गिरने के बहाने पूरा परिचालन बंद है। रेल विभाग यात्रियों की सुरक्षा का तर्क देता है लेकिन मर्ज बढ़ता गया। विभाग इस समस्या का स्थायी हल आज तक नहीं कर पाया है या शायद करना ही नहीं चाहता। रेल सेवा बंद होने पर लोग थोड़ा-बहुत विरोध जरूर करते हैं, कुछ नेता दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना तक देकर आते हैं लेकिन चार लोकसभा सीटों वाले हिमाचल में कांगड़ा घाटी रेल मार्ग की बदहाली की गूंज फिरोजपुर डिवीजन से लेकर दिल्ली के लुटियन जोन में बने रेल भवन तक नहीं पहुंच पाती है। ब्रॉडगेज के वायदों के बीच झूलती इस लाइफ लाइन की धीमी पड़ती नब्ज को दुरुस्त करने का समय सियासतदानों से लेकर अफसरों के पास शायद नहीं है...पर बढ़े बस किराए के बोझ से कराह रही आम जनता की उम्मीद अब भी रेल पर टिकी है।   

समस्या तो है पर समाधान कब होगा?
रेलवे के एक अधिकारी बताते हैं कि पठानकोट-जोगिंद्रनगर रेलमार्ग पर हर साल कोपरलाहड़ व गुलेर में पहाड़ी का मलबा गिरने से ट्रैक को नुक्सान पहुंचता है लेकिन यह कहना मुश्किल होता है कि मलबा कब व कहां गिरेगा। इस वर्ष कांगड़ा के आगे कोपरलाहड़ और गुलेर में लगभग 30 मीटर तक ट्रैक मलबे व पत्थरों की चपेट में आकर बह गया। बरसात के कड़े तेवरों से इस बार बैजनाथ-पपरोला से जोगिंद्रनगर और पालमपुर के पास भी बड़ी मात्रा में मलबा गिरने से ट्रैक क्षतिग्रस्त हुआ। यहां सवाल यह है कि रेल विभाग भूस्खलन के चलते हर साल रेल सेवा स्थगित तो कर देता है लेकिन इस समस्या के स्थायी हल के लिए कदम क्यों नहीं उठाता? 

7 किलोमीटर पैदल चलना मजबूरी
देहरा विस क्षेत्र की पंचायत धार-धंगड़ के गांव टंयू, लमचतरा व धंगड़ खास के लोगों के लिए अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए रेल लाइन पर चलना मजबूरी है। पहले करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर नाला पार करना पड़ता था। उसके बाद 4 कि.मी. दलदली और टूटी सड़क व उसके बाद एक कि.मी. तक बच्चों को कंधों पर बैठाकर बिना रेलिंग वाले रेलवे पुल पार करने पड़ते हैं। लुनसू, धार धंगड़ गांव के बच्चे सुबह 5 बजे उठते हैं तथा करीब 5 से 6 किलोमीटर रेल लाइन से होकर स्कूल पहुंचते हैं। आधा समय तो पैदल चलने में ही गुजर जाता है फिर वे पढ़ाई करें तो कब...! 

10 गुना सस्ता है रेल का भाड़ा
हाल ही में बस का किराया बढ़ चुका है, ऐसे में मध्यम वर्ग और गरीब लोगों के लिए रेल का सफर और राहत लेकर आएगा क्योंकि रेल का किराया बस किराए के मुकाबले करीब 10 गुना सस्ता है। पर्यटन के लिहाज से भी कांगड़ा घाटी रेल मार्ग का महत्व है लेकिन कम आय व बढ़ते घाटे के चलते यह नैरोगेज लाइन रेलवे के लिए मुनाफे का सौदा नहीं है। शायद इसी कारण यह उपेक्षा का शिकार है। 

रेल मार्ग पर खतरों भरा पैदल सफर
धार पंचायत उपप्रधान नितिन ठाकुर कहते हैं कि जब गांव का कोई व्यक्ति बीमार हो जाए तो उसे कच्ची सड़क से अस्पताल तक पहुंचाना दूभर हो जाता है। रेल मार्ग से पैदल सफर के दौरान चार माह पहले धार-धंगड़ वासी एक व्यक्ति की पुल से नीचे गिरकर मौत हो गई थी तो एक छात्रा गिरने से बाल-बाल बची। 

पलायन कर गए कई लोग 
त्रिपल के मुकेश कहते हैं कि कई लोग अपनी जमीनें  बेचकर शहरों-कस्बों में जाकर बस गए हैं क्योंकि गांव में सड़क न होने के कारण हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी नहीं दे सकते। एकमात्र सहारा ट्रेन ही है उसका भी कोई पता नहीं होता कि कब बंद हो जाए।

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