हाल-ए-हिमाचल : मुंह क्यों सिल गए विद्यार्थी परिषद के???

Edited By kirti, Updated: 13 Oct, 2018 12:05 PM

haal e himachal why the student council of mouth fell

साल 1987 में मैंने जब हमीरपुर कालेज में दाखिला लिया था तो पहले ही दिन विजय अग्निहोत्री को तीन लोगों के साथ छात्र चुनावों का प्रचार करते देखा। विजय अग्निहोत्री एक बार विधायक रहने के बाद आजकल बीजेपी के  उपाध्यक्ष (और शायद अध्यक्ष इन वेटिंग भी) हैं।...

  शिमला (संकुश): साल 1987 में मैंने जब हमीरपुर कालेज में दाखिला लिया था तो पहले ही दिन विजय अग्निहोत्री को तीन लोगों के साथ छात्र चुनावों का प्रचार करते देखा। विजय अग्निहोत्री एक बार विधायक रहने के बाद आजकल बीजेपी के  उपाध्यक्ष (और शायद अध्यक्ष इन वेटिंग भी) हैं। हमीरपुर  से स्नातक करके पांच साल बाद जब मैं शिमला विश्वविधालय पहुंचा तो सबसे पहला जो नज़ारा देखा वो था। सतपाल सत्ती  अपने दल-बल के साथ छात्र चुनावों की मांग को लेकर नारेबाजी कर रहे थे। सतपाल सत्ती भी सात बरस से बीजेपी के अध्यक्ष हैं। उसके बाद मैंने लगातार ऐसे नजारे देखे जिनमे जगत प्रकाश नड्डा ,महेंद्र पांडे ,रणधीर शर्मा ,विपिन परमार आदि आदि तमाम विद्यार्थी परिषद नेता छात्र चुनावों को लेकर संघर्षरत दिखे। इस बीच नासिर खान (एनएसयूआई) और कुलदीप ढटवालिया (परिषद) छात्र चुनावों की हिंसा का शिकार होकर मारे गए।
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हिंसा काबू से बाहर जाती दिखी तो वीरभद्र सिंह की सरकार ने चुनाव कराने पर रोक लगा दी। उस रोक को हटवाने को लेकर सभी छात्र दल (एनएसयूआई को छोड़कर )  आंदोलन पर उतर आए। यहां तक कि एक दौर ऐसा भी आया जब एक दूसरे के लहू के प्यासे कामरेड और संघी भाई-भाई हो गए। उन्होंने मिलकर तीन महीने तक शिक्षा बंद  का आयोजन किया और चुनाव बहाल हुए। दिलचस्प ढंग से छात्र चुनावों में साल दर साल वामपंथी पिछड़ते गए और विद्यार्थी परिषद्  की जीत का आंकड़ा बढ़ता गया।हालाँकि शिमला विश्वविधालय परिसर की जीत को कामरेड अपने कुछ साथी कलम घसीटों की मदद से यह साबित करने की कोशिश करते रहे कि मानो पूरे हिमाचल पर उनका अधिकार हो। लेकिन वास्तविकता यह थी और है कि हिमाचल में इस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद नंबर एक छात्र संगठन है। एनएसयूआई दूसरे नंबर पर है और एसएफआई आजाद जीतने वालों से भी पीछे है। परिषद को इस जीत का सबसे बड़ा लाभ  इसी साल मिला जब परिषद के ठेठ कार्यकर्ता जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बने और उनके मंत्रिमंडल के  तीन सदस्यों को छोड़कर शेष सभी पदों पर भी विद्यार्थी परिषद के नेता ही काबिज हुए।PunjabKesariबाद के शासकीय विस्तारों में कुछ चेयरमैन भी इसी संगठन के खाते आए। यानी मोटा-मोटी इस समय शीर्ष से लेकरधरातल तक हिमाचल की सत्ता में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की पनीरी काबिज है। बीजेपी संगठन में भी प्रधान से लेकर बूथ प्रधान तक इसी छात्र दल से निकले नेताओं का बोलबाला है। इस लिहाज से इस बम्पर फसल का लाभ किसान यानी विद्यार्थी परिषद को खूब होना चाहिए था। लेकिन स्थितियां उलट हैं। हालात यह हैं कि कांग्रेस सरकार के खिलाफ जिस विद्यार्थी परिषद् ने रूसा सिस्टम को लेकर बड़ा आंदोलन किया और बीजेपी की जीत की नींव रखी वही परिषद् अपनी सरकार में रूसा को रद नहीं करवा पाई। जो थोड़ा बहुत फेस सेविंग का उद्यम हुआ भी उसके लिए भी महेंद्र पांडे और संघ के अन्य बड़े पदाधिकारियों को शिमला आना पड़ा। बेचारे ABVP वाले अब जैसे तैसे तर्क देकर रूसा मसले पर अपनी जली रूह पर मरहम लगा रहे हैं। और अब उससे भी बड़ी बात यह किजिस ABVP के गले छात्र चुनावों के नारों से सूख गए उसकी अपनी ही सरकार छात्र चुनावो से किनारा कर गई है।
PunjabKesariजबकि अब तो यूनिवर्सिटी के वीसी साहब भी ABVP वाले हैं। हालात यह हैं कि जो ABVP छात्र चुनावों को लोकतंत्र की आत्मा कहते नहीं थकती थी उसके मुंह छात्र चुनाव कराने की मांग पर ऐसे सिल गए हैं मानो बकरी ने शेर देख लिया हो और उसकी मैं-मैं बंद हो गई हो। यह सही है कि सरकार की स्थिति डांवाडोल है और वो लोकसभा चुनावों से पहले छात्र चुनावों का जोखिम नहीं लेना चाहती ,लेकिन ABVP क्यों चुप रही? आखिर क्यों? अब कहां गया वो क्रांति का जज्बा। कहां चला गया वो ज्ञान, क्यों टूट गयी वो एकता जो चुनाव के लिए SFI से भी हो गई थी। शील क्यों बन गया एक ऐसी सिल जो संगठन के सीने पर जा बैठी है? हमें अच्छी तरह से याद है कि धूमल सरकार के कार्यकाल में भी ABVP ने छात्र चुनावों के मसले पर सरकार की नाक में दम कर दिया था। लेकिन अब ऐसा क्या हो गया ??/ तो क्या माना जाए कि यह वैसे ही है कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत? या फिर ABVP के अपने ही सिक्के खोटे निकले? क्यों अब परिषद को अपना वो नारा याद नहीं रहा- भगत सिंह के वारिसो- बोलो बंदेमातरम???

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