वाद्ययंत्रों से दूर भाग जाते हैं कई असाध्य रोग

Edited By Updated: 25 Feb, 2017 10:38 PM

shy away many incurable diseases from instruments

21वीं सदी के इस दौर में यह सुनने में अचरज भरा जरूर हो सकता है लेकिन कई शोधार्थियों की मानें तो देवताओं के आगे बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों से कई असाध्य रोग दूर भागते हैं।

मंडी: 21वीं सदी के इस दौर में यह सुनने में अचरज भरा जरूर हो सकता है लेकिन कई शोधार्थियों की मानें तो देवताओं के आगे बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों से कई असाध्य रोग दूर भागते हैं। देवता के आगे बजने वाले इन वाद्ययंत्रों से व्यक्ति के शरीर में भारी कंपन पैदा होती है और सामने खड़ा व्यक्ति अगर ध्यान योग की मुद्रा में लीन होकर इन वाद्ययंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनि को महसूस करता है तो उसके अंदर के सारे विकार बाहर आ जाते हैं और उसे एकाएक खेल आना शुरू हो जाती है और इससे उसमें जोश का संचार होता है। इस प्रक्रिया को निभाने के लिए देवता अपना प्रभाव व्यक्ति के शरीर व आसपास के वातावरण में फैला देता है जिससे सारा वातावरण शुद्ध हो जाता है और आधे से ज्यादा रोग इस मनोवैज्ञानिक तरीके से दूर भागते हैं। 

पलभर में दूर हो जाती भूत-प्रेत की छाया
इतना ही नहीं देवता के समक्ष ऐसे पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाने से कई असाध्य रोग व भूत-प्रेत की छाया भी पलभर में दूर हो जाती है। वाद्ययंत्रों की सूक्ष्म ध्वनियां प्राणी के शरीर में घुसकर दुरात्मा व कई प्रकार के रोगों से लड़कर उन्हें दूर फैंक देती हैं। देव समाज में आज भी इस प्रक्रिया को अपनाकर कई लोगों का इलाज होता है, उन्हें केवल देवता के चारों ओर चक्कर लगाने के बाद पूजा का पानी पिलाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में छाट (देवता के पानी से छींटे मारना) कहते हैं। मंडी, कुल्लू व सराज में आज भी बच्चों में छोटी-मोटी खांसी, बुखार, पीलिया, नजर लगना जैसी बीमारियां और बाहरी दैत्य शक्तियों के प्रभाव को कम करने के लिए यह देव प्रक्रिया निभाई जाती है, जिससे तुरंत ही रोगी ठीक हो जाता है। 

दलित परिवारों ने कभी नहीं देखा अस्पताल 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बजंत्रियों के हाथ में ही यह कला है, जिन्हें समाज में दलित वर्ग समझा जाता है लेकिन बदलते समय के साथ देवताओं के आगे सामान्य जाति के लोग भी अब वाद्ययंत्र बजाने का काम करने लगे हैं। कई शोधार्थियों का दावा है कि जिन दलित परिवारों के लोग सदियों से यह कार्य करते आ रहे हैं वे कई असाध्य रोगों से मुक्त पाए गए हैं और उन्होंने कभी अस्पताल का दरवाजा तक नहीं देखा। शोधार्थियों का मानना है कि इन कई प्रकार की परम्पराओं व विधियों का अपना सांस्कृ तिक, धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व भी है लेकिन देव समाज में इन्हें आज भी देवता के ही आदेश पर निभाया जाता है। 

सराज व चौहार घाटी के देवता साक्षात प्रमाण
देवताओं के कारकून व शोधाथ्रियों का कहना है कि आज भी अधिकांश देवताओं के दरबार भूत-प्रेत का साया व कई बीमारियों का इलाज हो रहा है। सराज घाटी व चौहार घाटी के देवता तो इसका साक्षात प्रमाण हैं। चौहार घाटी के देवता हुरंग नारायण जहां धूम्रपान के खिलाफ जनता को सदियों से स्वस्थ रहने का संदेश देते आ रहे हैं, वहीं सराज घाटी के देव छांजणू भूत-प्रेत की छाया दूर करने में आज भी अहम भूमिका निभाते आ रहे हैं। सराज के देव कोटलू मारकंडा न्याय दिलाने के लिए महारत हासिल किए हुए हैं, वहीं देवता घतोत्कच चोरी-डकैती पकड़वाने में अहम भूमिका अदा करते हैं। सराज के ही बिठू नारायण पुत्र रत्न आधि-व्याधि से बचाव के लिए जाने जाते हैं। देवता चुंजवाला रियासत की सीमाओं के रक्षक तो छमांहू क्षेत्र में धन-धान्य व समृद्धि के लिए पूजे जाते हैं। तरौर के माहूनाग सर्पदंश के इलाज के लिए जाने जाते हैं। 

बजंतरियों के वश में है देवता
देवी-देवताओं के रथों में प्राण फूंकने का पूरा दारोमदार उनके बजंतरियों पर रहता है। इनके बगैर कोई देवता न हिल सकता है न अपने गूर के माध्यम से बोल सकता है। यही नहीं पैदल चलने से लेकर उठने-बैठने तक अलग-अलग बाजे बजाने की परंपरा है। बारिश रोकना हो या इंद्रदेव से बारिश की मांग करना हो तो इसके लिए देवता के समक्ष ऐसे वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं,  कुछ ही क्षणों में इंद्रदेव प्रसन्न होकर प्रजा को खुश करते हैं लेकिन यह सब केवल वाद्ययंत्रों की स्वर लहरियों से ही संभव है। बिना वाद्ययंत्रों के देवता एकमात्र मूॢत समान है, जिसमें अगर प्राण फूंकने का मादा किसी में है तो वो केवल बजंतरियों के पास मौजूद कला में निहित है। 

देवता के साथ चलने वाले वाद्ययंत्र
देवता के सबसे आगे हनुमान या भीम की केसरिया पताका लिए चलने वाला ध्वज फहराया, उसके पीछे बाम, नरसिंगे, करनाल, ढोल व नगाड़ा और देवता से ठीक आगे शहनाई बादक। अधिकांश वाद्ययंत्र चमड़े और बकरे की खाल के बनते हैं जबकि करनाल व नरसिंगे चांदी व पीतल के बने होते हैं। इनक ो बजाने वाले बजतंरियों को देवता की ओर से मेहनताना दिया जाता है और कई स्थानों पर अनाज देने की परम्परा आज भी है। ऐसी मान्यता है कि यह कला देवता के आदेशानुसार स्वत: ही बजंतरी की पीढ़ी को हासिल होती है।

क्या कहना है जानकारों का  
देव संस्कृति व वाद्ययंत्र में पीएच.डी. कर चुके डा. रमेश ठाकुर का कहना है कि मंडी, कुल्लू व सराज के देवताओं के पास हर मर्ज ही दवा है। जिसका सांस्कृ तिक, धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व भी है। आज भी मंडी, कुल्लू व सराज में लोग छोटी-मोटी बीमारी से लेकर अदालती कार्य, शुभ कारज तक के लिए देवताओं की ही आज्ञा से कार्य करते हंै जो विश्व में अनूठा कार्य है। इस धरोहर को संजोने के लिए समाज के हर वर्ग को आगे आना होगा।

रविवार को आयोजित होगा देव ध्वनि कार्यक्रम
इस बार वाद्ययंत्रों को लेकर प्रशासन दूसरे वर्ष फिर से देव ध्वनि कार्यक्रम रविवार को आयोजित करने जा रहा है, जिसमें लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में अपने रिकार्ड को तोडऩे के लिए करीब 2 हजार वाद्ययंत्रों के बजंतरियों को बुलाया गया है। इस कार्यक्र म में आज मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह व उनके कैबिनेट सहयोगी भी पहुंचे रहे हैं, जहां देवलुओं और बजंतरियों को उम्मीद है कि वे बजंतरियों के लिए मानदेय की घोषणा कर सकते हैं। 

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