संगठन-सरकार प्रमुखों में बढ़ते टकराव से खूब हुआ कांग्रेस का बंटाधार

Edited By Punjab Kesari, Updated: 20 Dec, 2017 02:45 PM

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हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस संगठन-सरकार को लेकर जारी अंर्तद्वंद्व आखिर पार्टी का बंटाधार कर गया। इनके बीच के इस टकराव में सरकार की ताकत संगठन को दबाने में जाती रही और इसके सूत्रधारों की ऊर्जा अपने वजूद को बचाए रखने में।

बिलासपुर: हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस संगठन-सरकार को लेकर जारी अंर्तद्वंद्व आखिर पार्टी का बंटाधार कर गया। इनके बीच के इस टकराव में सरकार की ताकत संगठन को दबाने में जाती रही और इसके सूत्रधारों की ऊर्जा अपने वजूद को बचाए रखने में। इतना ही नहीं कांग्रेस के कई विधायकों की 5 साल तक अपने-अपने हलकों में विकास के मील पत्थर गाड़ने की जरूरत पर सरकार में उनकी उपेक्षा के मुद्दे भी पार्टी को हानि कर गए। वीरभद्र सिंह को अलग कर दें तो दूसरी व तीसरी पंक्ति के वही नेता बदलाव की इस आंधी में दोबारा विधानसभा में वापसी कर पाए जो 5 वर्ष तक सत्ता के मोह से दूर रहे। सरकार में ओहदों पर मौज करने के बजाय जनता से संवाद में पीछे नहीं रहे। बात चाहे गुड़िया मामले की रही या फिर होशियार सिंह हत्याकांड की हो, कांग्रेस के कारिंदों की नख से शीर्ष तक संवेदनहीनता के शोर ने इस गुजरे शासन की 4 नेकियां भी दबाकर रख दीं। 


कारण नम्बर 1
राज्य में कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता वीरभद्र सिंह और पार्टी प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू के बीच दशकों पहले से छत्तीस का आंकड़ा चलता रहा है। कांग्रेस के भीतर की कलह की यह आग इस विधानसभा चुनाव के ऐलान के बावजूद ठंडी नहीं हुई। अधिकतर कद्दावर नेता चुनावी दौर में भी अपनी इन हरकतों से नहीं चूके। वीरभद्र ने सुक्खू के इलाके में प्रचार तक नहीं किया और बाली के हलके में हुई जनसभा में तो दोनों में हुई बहस ने कांग्रेस के भीतर की लड़ाई को ही पूरी तरह से आम कर दिया। असल में इस जंग के कारण सत्ता व संगठन अलग-अलग रास्तों से चलते रहे और परिणाम आज सामने हैं। 


कारण नम्बर 2
कांग्रेस सरकार में मंत्री रहते हुए अधिकतर मंत्रियों में आपसी खींचतान व जनता से संवादहीनता व जनता से जुड़े हुए मुद्दों पर संवेदनशीलता की कमी साफ दिखती रही।आशा कुमारी व सुक्खू सरकार में पदों पर न रहते हुए भी अपने हलकों में सक्रिय रहे। बिलासपुर जिले में एक बिरला उदाहरण रामलाल ठाकुर भी बने हैं। ऊना जिले से सतपाल रायजादा हों या फिर राजेंद्र राणा जैसे नेता जिन्होंने समाज में सक्रिय रहते हुए जनता से ऐसी नजदीकियां बढ़ा लीं कि लोगों को एक पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद का घोषित उम्मीदवार ही दोनों के आगे फीके लगने लगे, ऐसे में कई मंत्रियों के हारने की बजह भी यही रही कि उन सबने लोगों से सीधा संवाद कम कर दिया था। 


कारण नम्बर 3
राज्य में गुटीय लड़ाई में विधायकों की एक बड़ी संख्या को सरकार से उचित तवज्जो नहीं मिलने की शिकायतें लगातार रहीं। इनमें घुमारवीं से राजेश धर्माणी, ऊना जिले से राकेश कालिया जैसे नाम बार-बार सामने आते रहे। काम नहीं होने के कारण इन्हें जनता के बीच अक्सर लाजवाब रहना पड़ा और यही एक कारण रहा कि इन्हें जनता ने परफॉरमैंंस नहीं आने के कारण इस बार नकार दिया। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का संगठन को नहीं मानने के कारण ऐसे हालात बने कि सुखविंदर सिंह सुकखू की ओर से प्रदेश भर में खड़ी की गई एक टीम का हौंसला टूटता चला गया। संगठन के लोगों ने अपनी उपेक्षा के चलते भाजपा के सामने मोर्चे पर तनकर खड़े होने में रुचि नहीं दिखाई। 


थकाऊ, उबाऊ पुराने चेहरों पर दांव
सत्ता व सरकार में अनबन का असर राज्य में पार्टी के टिकटों के आबंटन पर भी हुआ। हिमाचल में कांग्रेस ने पार्टी टिकटों के आबंटन में ऐसी फजीहत करवाई जैसे कि पहले कभी नहीं हुई। पार्टी ने कई महत्वपूर्ण सीटों पर पुराने व उबाऊ चेहरे उतार दिए। शिमला सीट पर तो कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से मजाक बन कर रह गई। यहां से भज्जी को मात्र 2600 वोट मिलना कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के फैसलों का मजाक उड़ा रहा है। ऐसे कई उबाऊ चेहरे पार्टी ने मैदान में उतार दिए जिन्हें बार-बार जनता झेलती रही और इस बार सहन करने को तैयार नहीं थी। 


ठियोग घटनाक्रम और सुखराम से लड़ाई का नुक्सान
कांग्रेस पार्टी ने ठियोग की सीट को अपने हाथ से गंवा दिया। यहां से विद्या स्टोक्स के चुनाव न लड़ने और फिर दोबारा चुनाव के लिए तैयार हो जाने के घटनाक्रम में पार्टी को नुक्सान हो गया। अन्यथा इस सीट को कांग्रेस आसानी से जीत सकती थी। मंडी जिले में सुखराम व वीरभद्र की जंग में पार्टी ने समय रहते हुए कोई एहतियाती कदम नहीं उठाया। सुखराम-वीरभद्र के दखल से तंग आकर भाजपा में चले गए। उन्होंने अपने वहां पर अपने रसूख के बल पर एक बार फिर भाजपा का परचम लहरा दिया। कौल सिंह पर उनको लेकर बार-बार उठते रहे विवाद व हलके में विकास के पिछड़ेपन को लेकर उठ रहे सवालों पर पोल खुलना ही भारी पड़ गया। लोग बार-बार की जीत के बावजूद हलके में अपेक्षित न होने से नाराज दिखे और उन्होंने वर्षों से मात खा रहे ज्वाहर ठाकुर को मौका देना उचित जाना।  

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